बिहार और झारखंड का राज्यों की विशेष दर्जे की मांग और उसकी जटिलताएं को जानने के लिए पूरा पोस्ट पढ़िये-
मोदी-3 सरकार के लिए अपरिहार्य दो घटक दल अपने-अपने राज्यों के लिए विशेष दर्जे की मांग लंबे समय से कर रहे हैं। दोनों के अपने तर्क हैं।
एक का कहना है कि उसका एक बड़ा हिस्सा- जो कोयला और इस्पात सहित तमाम खनिज-आधारित आय का स्रोत था- नया राज्य बना, जिससे राजस्व का जरिया सूख गया।
दूसरे का कहना है कि राजधानी व उसमें लगे उद्योग और वाणिज्य नए राज्य में चले गए, लिहाजा राजस्व की भरपाई और नई राजधानी बनाने के लिए विशेष राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिए।
आखिर इस दर्जे के मिलने से राज्य को क्या लाभ मिलता है? वर्ष 1969 में 5वें वित्त आयोग और एनडीसी ने इस दर्जे के लिए निम्न मापदंड बनाए- पहाड़ी और दुर्गम क्षेत्र, कम आबादी घनत्व, अधिक आदिवासी आबादी, पड़ोसी देश से लगे सामरिक क्षेत्र का होना, आर्थिक व आधारभूत संरचना में पिछड़ा होना और राज्य की आय की प्रकृति का तय न होना।
शुरू में जम्मू-कश्मीर, असम और नगालैंड और कालांतर में सीमावर्ती आठ और पहाड़ी राज्यों को विशेष दर्जा दिया गया। ऐसे राज्यों को केन्द्रीय योजनाओं में अपना अंश केवल 10% देना होता है और अन्य कई तरह की राजस्व रियायतें केंद्र देता है।
आंध्र प्रदेश ने इस मांग को लेकर वर्ष 2018 में 11 दिन संसद नहीं चलने दी जबकि बिहार एक लंबे समय से यह मांग कर रहा है। राजस्थान और झारखंड भी ऐसी मांग करने लगे हैं।
यह सच है कि बिहार की प्रति व्यक्ति आय 60 हजार सालाना से भी कम हैं और मानव विकास के तमाम अन्य पैरामीटर्स पर भी वह पीछे है।
लेकिन सर्वाधिक जनसंख्या वृद्धि दर और उसके कारण आबादी घनत्व परिवार नियोजन की असफलता के कारण हैं। मात्र 10% शहरीकरण की दर और औद्योगीकरण का न होना यह प्राकृतिक कारणों से नहीं है।
बहरहाल जिस राज्य में प्रति परिवार केवल 0.6 हेक्टेयर जमीन हो (राष्ट्रीय औसत के लगभग आधा) उसे विशेष दर्जा देना लाजिमी है।
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